आमिर रिज़वी
ट्रम्प के समर्थक उनके कुछ कूटनीतिक प्रयासों को शांति की दिशा में मील का पत्थर मानते हैं।
अब्राहम एकॉर्ड्स के ज़रिए उन्होंने इज़राइल और अरब देशों के बीच संबंध सामान्य करने में भूमिका निभाई — जिसे मध्य पूर्व में स्थिरता के लिए ऐतिहासिक कदम कहा गया।
साथ ही, उन्होंने उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन से सीधी बातचीत कर परमाणु तनाव कम करने का प्रयास किया।
नोबेल पुरस्कार की घोषणा के समय यह भी माना गया कि इज़राइल-फिलिस्तीन शांति प्रक्रिया में ट्रम्प की भूमिका उनके पक्ष में कुछ सहानुभूति ला सकती है। परंतु विशेषज्ञ मानते हैं कि यह पहल अधूरी है और वास्तविक स्थायी शांति से अभी बहुत दूर है।
इसके साथ ही ट्रम्प बार-बार भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध रोकने में अपनी कथित भूमिका का डंका पीटते रहे, और स्वयं को हर संकट में “विश्व का शांति-दूत” बताने की कोशिश करते रहे — लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह प्रयास वास्तविक मध्यस्थता से अधिक, दुनिया का “चौधरी” बनने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित था।
ट्रम्प की राजनीति का एक और प्रमुख पहलू उनकी बयानबाज़ी में अस्थिरता है — वे सुबह कुछ कहते हैं और शाम तक अपने ही बयान से पलट जाते हैं।
उनकी यही बड़बोलापन और असंगत वक्तव्य शैली अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक मज़ाक और अविश्वास का प्रतीक बन चुकी है।
आर्थिक टकराव और भारत पर टैरिफ: अप्रत्यक्ष युद्ध की राजनीति
ट्रम्प की नीतियाँ कई स्तरों पर अशांति और असंतुलन का कारण बनीं। विशेष रूप से भारत और अन्य देशों पर लगाए गए ऊँचे टैरिफ (Import Tariffs) ने यह दिखाया कि आर्थिक दबाव भी एक तरह का “अप्रत्यक्ष युद्ध” हो सकता है।
‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के तहत ट्रम्प प्रशासन ने स्टील, एल्यूमिनियम और आईटी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाए, जिससे भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंधों में तनाव बढ़ा और वैश्विक साझेदारी कमजोर हुई।
यह रुख शांति की अवधारणा के उस मूल भाव के विपरीत है, जिसमें सहयोग और संतुलन प्रमुख होते हैं।
ट्रम्प की नीतियों का एक और दुष्परिणाम यह भी है कि उनकी आर्थिक नीतियाँ स्वयं अमेरिका के लिए संकट का कारण बन सकती हैं।
नासा जैसी शीर्ष संस्थाओं में कई महत्वपूर्ण परियोजनाएँ धन की कमी से जूझ रही हैं, और कई अमेरिकियों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है।
यह इस बात का संकेत है कि “अमेरिका फर्स्ट” की नीति अंततः “अमेरिका फर्स्ट ” — यानी आंतरिक असंतुलन — का कारण बन सकती है।
वैश्विक संस्थाओं से दूरी: WHO और पेरिस समझौता
ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका ने कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मुंह मोड़ने की नीति अपनाई।
उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) को फंडिंग बंद कर दी और पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलकर पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक प्रयासों को झटका दिया।
ये दोनों निर्णय उस नेतृत्व दृष्टिकोण के विपरीत हैं, जो वैश्विक एकजुटता और मानवता की साझा जिम्मेदारी पर आधारित होता है।
निष्कर्ष: इस वर्ष संभावना कम, भविष्य में अवसर संभव
यदि नोबेल शांति पुरस्कार का मापदंड व्यापक दृष्टि से लिया जाए — जिसमें आर्थिक आक्रामकता, पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी, कूटनीतिक संतुलन और वैश्विक स्थिरता सब शामिल हों — तो ट्रम्प की नीतियाँ इस कसौटी पर पूरी तरह खरी नहीं उतरतीं।
उनके कार्यकाल की कई नीतियाँ शांति से अधिक दबाव, प्रतिस्पर्धा और प्रभुत्व की राजनीति का प्रतीक रही हैं।
हालांकि, यह भी स्वीकार करना होगा कि अब्राहम एकॉर्ड्स और मध्य पूर्व शांति प्रयासों में उनकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
इस वर्ष ट्रम्प के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिलना लगभग नामुमकिन लगता है — लेकिन यदि आने वाले समय में वे वास्तविक कूटनीतिक संवाद, पर्यावरण सहयोग और आर्थिक संतुलन की दिशा में ठोस कदम उठाते हैं, तो वे अगले वर्ष एक बेहतर और गंभीर विकल्प के रूप में सामने आ सकते हैं।
(यह संपादकीय लेखक के निजी विचार हैं, संगठन की नीतियों से इनका संबंध नहीं है।)
